2019 का चुनाव प्रचार पूरे शबाब पर है। सभी दल अपनी पूरी ताकत से देश भर में अपनी-अपनी पार्टियों के प्रचार-प्रसार में लगे हुए हैं। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी अपने 5 साल के शासनकाल की उपलब्धियां गिनाने की बजाय चुनाव को अन्य गैरजरूरी मुद्दों पर केन्द्रित करने की कोशिश कर रही है। सेना के पराक्रम को तो पहले ही भुनाने का प्रयास किया जा रहा था मगर हद तो तब हो गई जब देश में चुनावी आचार संहिता लागू होने के बावजूद तमाम मर्यादाओं को दरकिनार करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद वैज्ञानिकों की उपलब्धि को राष्ट्र के नाम संदेश की तरह कर लाइव कर देते हैं। अपने कार्यों में असफल सरकार ही इस तरह देशभक्ति की भावनात्मक संजीवनी का सहारा लेकर जनता के सामने आती है । प्रधानमंत्री का यह व्यवहार भले ही चुनाव आयोग को न खटका या चुनाव आयोग ने इसे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं माना मगर भाजपा के समर्थकों को छोड़ दिया जाए तो आम जनता को यह अनैतिक ही लगा।
अपनी एक सभा में मोदीजी ने अपने प्रचार की मुख्य धारा को स्पष्ट करते हुए सरेआम कहा कि जनता को दुश्मनों पर हमला करने वाली सरकार चाहिए या दुम दबाकर बैठ जाने वाली सरकार। हालांकि पिछले पांच सालों में मोदी सरकार लगातार सीमा पार के आतंक व हमलों के मामलों में मनमोहन सरकार के मुकाबले बुरी तरह असफल रही है। प्रधानमंत्री मोदीजी की इस तरह हिंसक हुंकार कई प्रश्नों को सामने लाती है। सोचने वाली बात यह है कि मोदीजी निर्माण की बजाय विध्वंस को, हिंसा को क्यों प्राथमिकता दे रहे हैं। क्या हम देश में इस तरह का हिंसक समाज बनाना चाहते हैं? एक बड़ा वर्ग इस बात से सहमत नहीं होगा मगर हमें यह समझना होगा कि आखिर भाजपा या मोदीजी इस बात को क्यों अपने प्रचार का मुख्य मुद्दा बना रहे हैं। जब देश में बेरोजगारी अपने सर्वकालिक बदतर स्थिति में है, उद्योग-व्यापार लगातार घाटे में जा रहे हैं तो देश के चुनाव प्रचार में भाजपा द्वारा इन मुद्दों की बजाय सर्जिकल स्ट्राइक या सेना के शौर्य को क्यों प्रमुखता से सामने लाया जा रहा है? कहा जा रहा है कि 2018 में बेरोजगारी पिछली सदी के सातवें दशक के बाद सबसे चरम पर आ गई है।
बेरोजगारी और अनिश्चितता से उपजी हताशा ने तब आक्रोश का रूप ले लिया था और पूरा युवा वर्ग सड़कों पर आ गया था। हताशा जब गुस्से में तब्दील होती है तो वह अराजक होकर हिंसा की ओर अग्रसर होती है मगर सही मार्गदर्शन मिले तो सकारात्मक प्रतिवाद के रूप में सामने आ सकती है। उस दौर में उस वर्ग को जयप्रकाश नारायण जैसे अनुभवी प्रखर व ओजस्वी नेता का सकारात्मक नेतृत्व मिला और उनके नेतृत्व ने उपजे जनाक्रोश के बल पर देश में पहली $गैरकांग्रसी सरकार के दिवास्वप्न को साकार किया जिसमें दक्षिणपंथी विचारधारा सहित अधिकतर गैरकांग्रेसी दल शामिल थे।
इसके बाद भी लगभग हर दशक में ऐसे आक्रोश का एक दौर देखा जाता रहा है जो उन्मादी होकर आवारा भीड़ के रूप में तब्दील हो जाता है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का लेख है 'आवारा भीड़ के खतरे'। परसाई जी लिखते हैं- ''एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूस हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से अधिक तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है। दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है।
इसका उपयोग खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।'' दशकों पहले परसाईजी का यह आकलन आज भी प्रासंगिक है।
मोदीजी इसी वर्ग को ध्यान में रखकर इस चुनाव में अपने प्रचार की दिशा तय कर चुके हैं। इसी एजेंडा के तहत वे लगातार इस आवारा भीड़ के ध्रुवीकरण की कोशिश कर जीत की राह तय कर रहे हैं। इसी तर्ज पर 90 के दशक की शुरुआत में भाजपा ने धर्म की घुट्टी पिलाकर इस भीड़ का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर पूरे देश में नफरत व हिंसा का ऐसा उन्माद फैलाया जिसकी आग आज तक बुझ नहीं पाई है। इसी के बल पर भाजपा ने सत्ता की एक-एक सीढ़ी चढ़ी। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सफलता के साथ ही भाजपा ने कॉर्पोरेट को साधा और भाजपा की उम्मीदें परवान चढ़ीं जिसके परिणामस्वरूप 2014 में भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता हासिल करने में कामयाब रही।
चुनावों में ऐसे संगठित वर्ग की भूमिका तेजी से बढ़ी है और सत्तासीन भाजपा इन्हें ही भुनाने के प्रयास में हैं। हाल के इन वर्षों में पूरे देश में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है जो अपनी लूट व वर्चस्व को कायम रखने के लिए ऐसी सरकारों को सत्ता में बने रहने देने पूरी तरह समर्पित होता है। पंच से लेकर प्रधान तक लाखों की तादाद में धनबल व बाहुबल से लैस अपराधियों व हिंसक मनोवृत्ति के उन्मादियों का एक संगठित गिरोह देश के लोकतांत्रिक ढांचे पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में काफी हद तक कामयाब हो चुका है। ऐसे में आम मतदाता की चुनाव के प्रति विरक्ति पैदा होती चली जाती है। आम मतदाता की विरक्ति व खामोशी से ऐसे लोगों को बल मिलता है और वे अपनी मंशा पूरी करने में कामयाब होते चले जाते हैं।
संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने संविधान सभा के भाषण में भविष्य में संभावित इन्हीं प्रवृत्तियों और खतरे के प्रति चिंता जाहिर करते हुए कहा था, ''मेरा दिमाग अपने देश के भविष्य (की चिंताओं) से भरा है, और मुझे लगता है कि इस पर अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए मुझे इस मौके का प्रयोग करना चाहिए। मुझे जो बेहद परेशान करती है, वह यह सच्चाई है कि भारत ने पहले एक बार सिर्फ अपनी स्वतंत्रता ही नहीं खोई, बल्कि इसे अपने ही कुछ लोगों की गद्दारी और निष्ठा भंग करने से खोया। ... क्या इतिहास इसे दोहराएगा? यह विचार मुझे परेशान करता है। यह परेशानी इस सच्चाई को महसूस करके और गहरी हो जाती है कि जाति और धर्मों के अपने पुराने दुश्मनों के साथ, अब हमारे पास /साथ बहुत से राजनैतिक दल (भी) हैं जिनके विभिन्न और विपरीत राजनैतिक विचार/मान्यता एवं धर्म हैं।
क्या भारत के लोग उनके धर्म से ऊपर देश को रखेंगे या फिर इनके धर्म को देश से ऊपर? मैं नहीं जानता। पर इतना तय है कि यदि राजनैतिक दलों ने देश से ऊपर अपने धर्ममत को रखा तो हमारी स्वतंत्रता दूसरी बार खतरे में पड़ जाएगी और संभवत: हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। हम सबको, हर हालत में पूरी दृढ़ता के साथ ऐसा घटित होने के विरुद्ध इसकी रक्षा करनी चाहिए। हमें पूरी तरह दृढ़ होना चाहिए कि हम अपने खून की आखरी बूंद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करें''। आज हर मतदाता को डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर की इस चिंता पर गंभीरता से विचार करना होगा तभी हमारा देश और लोकतंत्र सुदृढ़ होकर कायम रह सकता है। jeeveshprabhakar@gmail.com
( देशबंधु 4 अप्रैल2019 )
जी जरूर
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